शुक्रवार, 7 सितंबर 2007

लो चुप्पी तोड़ दी मैंने....!

काफी दिनों से कुछ भी नहीं लिखा। दिमाग और अंगुलियों के बीच कशमकश जारी है। कल भी कुछ कुछ लिखने की कोशिश की थी। बहुत कुछ लिखा...फिर मिटाया...फिर से लिखा लेकिन आखिरकार हाथ कुछ भी न लगा। ऐसा पहले नहीं होता था। जो भी मन में आता था बेखौफ पन्ने पर अपनी शक्ल ले लेता था। लेकिन बीते पांच सालों में काफी कुछ बदल गया है।
साल 2002 में इलाहाबाद से दिल्ली आया था। जी नहीं, पत्रकारिता का कोई शौक या जूनून इधर नहीं लाया। दरअसल ग्रेजुएशन पूरा करते हुए जिंदगी के महज 19 साल ही जाया कर पाया था। पहला अटेंप्ट देने के लिए 21 साल का होना जरुरी है और इसी मजबूरी ने मेरी जिंदगी बदल दी। अपनी तैयारी पर इतना ज्यादा यकीन था कि दो साल बिताना बहुत मुश्किल लगने लगा और यहीं पर एक गलती (?) हो गई। आईआईएमसी का फार्म डाला और साल भर बाद खुद को एक चैनल पर पीटूसी करते पाया।
लेकिन इलाहाबाद से दिल्ली के इस सफर में काफी कुछ था जो कहीं छूट गया। इलाहाबाद में महीने के आखिरी दिनों में ममफोर्डगंज के फव्वारा चौराहे पर जाने में डर सा लगता था....अगर कोई दोस्त साथ में हो तो भले ही बातें मार्क्स, लेनिन या चेग्वेरा की हो रही हों....लेकिन मन अपनी खाली जेब और चाय से भरी केतली के बीच ही कहीं फंसकर रह जाता था। कहीं ससुरा चाय पीने का मूड न बना ले....। तीन सालों में शायद ही कोई महीना बीता होगा जब ये नौबत नहीं पैदा हुई होगी। पर हां, ये अभाव सिर्फ जेब तक था। दोस्तों का एक गिरोह था जो कंपटीशन देने वाले तमान पढ़ाकुओं से कुछ अलग था। हममें शायद ही कोई धन्ना सेठ रहा हो जिसने अभाव को करीब से न जाना हो लेकिन हमारी सोच, हमारी बातों और "बकईती" में ये अभाव कभी अपनी जगह नहीं बना पाया। जेब में एक कौड़ी न हो....पर बातें सवा लाख से कम की नहीं होती थीं।
17-18 साल की उम्र में क्रांति और समाज सुधार की बड़ी बड़ी बातें। कच्ची उम्र में समझ भला कितनी रही होगी....पर ख्वाब बड़े थे....जज्बा था कुछ कर गुजरने का...अपने लिए नहीं...समाज के लिए, अपने वतन के लिए...। बेहद कम उम्र और पढ़ाई लिखाई की नैतिक जिम्मेदारी के बाद भी काफी कुछ किया। हालांकि कई बार लगता है कि सब कुछ एक कोशिश भर थी खुद को भीड़ से अलग रखने की। फिर भी धरना प्रदर्शन, नाटक मंडली का हिस्सा होने, वाल मैग्जीन निकालने, भूकंप में मारे गए लोगों के लिए चंदा जुटाने से लेकर कुछ सामाजिक, सियासी मुद्दों पर गरमागरम बहस करने तक की सारी कवायद कुछ अलग थी।
हम सोचते थे.....कुछ वक्त ही सही पर हम सचमुच परेशान होते थे...आखिर हमारे आस पास क्या हो रहा है? हम कहां जा रहे हैं...और हम क्या कर सकते हैं। बहुत सारे सवालों से लड़ते थे, जूझते थे....कुछ भी हासिल नहीं होता था ये बात अलग है। कई बार लगता था हम अपने घरवालों को धोखा दे रहे हैं.....कितनी मुश्किल से महीने का खर्च भेजा जाता था ताकि पढ़ लिखकर हम बड़े आदमी बन सकें.....और हम बेकार की चिंता में दुबले हुए जा रहे हैं। खैर मध्यमवर्गीय मजबूरियों के बावजूद हमने सोचना, बहस करना, विरोध करना और लिखना नहीं छोड़ा। अपनी बात कहने के लिए हमारे पास न तो कोई बड़ा प्लेटफार्म था, ना ही कोई जानी मानी पत्रिका या अखबार जो हमारे अधकचरे विचारों को जगह दे....कुछ था तो बस जूनून सच बोलने का, अपना हक छीनने का और गलत बात के खिलाफ मोर्चा खोलने का। हो सकता है ये सब कुछ स्यूडो इंटलेक्चुअल होने की निशानी रही हो या फिर हमारा बचपना रहा हो पर उस वक्त हम खुलकर सांस लेते थे, मन के किसी कोने में कोई डर नहीं था। सोना, खाना-पीना, पढ़ना और बाकी बचा समय कुछ सोचने में....चिंता करने में जाया करते थे। सब कुछ करने के बाद भी कोई विकल्प, कोई समाधान या कोई रास्ता नजर नहीं आता था पर फिर भी वो जिंदगी अच्छी थी हम जी रहे थे अपने खुले आकाश में...। यही वो वक्त था जब लिखते हुए कुछ सोचना नहीं पड़ता था....बेशक अंगुलियों को कीबोर्ड की कोई भनक नहीं थी पर कलम जहर उगलती थी.....और कई बार कराहती थी अपनी बेबसी पर....लेकिन ऐसा नहीं हुआ कि कुछ कुछ लिखकर मिटाना पड़ा हो।
उस वक्त लगता था जब हमारे पास पैसा होगा...ताकत होगी, बड़ा प्लेटफार्म होगा तो शायद अपनी बात और दमदार तरीके से रख पाएंगे। लगता था हमारे चीखने चिल्लाने से और कुछ हो न हो... हमारी तरह कुछ और लोग भी...."हम दो हमारे दो"....से बाहर की दुनिया के बारे में सोचेंगे...चिंता करेंगे। इतने से भी कुछ न कुछ बदलेगा। लेकिन अफसोस....बाकी कुछ नहीं बदला, हम बदल गए। पैसा, रुपया, ताकत, प्लेटफार्म...सब कुछ है पर वो जज्बा न जाने कहां गुम हो गया। शायद ही कभी अपनी नौकरी, अपने काम और शादी के लिए परेशान कर रहे घरवालों की दलीलों से ज्यादा कुछ सोच पाता हूं....देश, दुनिया, समाज और तमाम दूसरे मुद्दे कभी कभार एनडीटीवी के किसी कार्यक्रम में सुलगते दिख जाते हैं तो कुछ वक्त उनका लुत्फ जरुर उठा लेता हूं.....यकीन मानिए बहुत मजा आता है।
आज से पांच साल पहले तक सोचा ही नहीं था....किस रंग की शर्ट पर कौन से रंग का पैंट अच्छा लगेगा...पिज्जा हट के मुकाबले डोमिनोज के पिज्जा का जायका कैसा होगा.. इनकम टैक्स रिटर्न क्या होता है? पालिसी, म्युचुअल फंड लेने से रीबेट मिलता है या नहीं... कौन सा बैंक कम दर पे होम लोन देता है.....कौन सी पेंशन स्कीन लेने से बुढापा अच्छे से कट जाएगा...और भी न जाने क्या क्या। समाज के दूसरे तबकों के लिए लड़ने की बात तो छोड़िए जनाब....इतनी भी हिम्मत नहीं है कि अपने Boss से पूछ लूं कि किसी Employee से लगातार साल भर नाइट शिफ्ट में काम करवाना कहां की मानवता है....। सचमुच महज पांच सालों में दिल्ली ने बहुत कुछ छीन लिया है मुझसे...। जेब भरी है पर दिमाग खाली है....कुछ है तो बस नौकरी....नौकरी.....और नौकरी। अब तो इतना भी सोचने की जहमत नहीं उठाता हूं कि आखिर चैनल पर गरीब, गंदे कपड़े पहनने वालों और झोपड़ी में रहने वालों की तस्वीरें दिखाने की मनाही क्यों है....?

6 टिप्‍पणियां:

उन्मुक्त ने कहा…

अरे की बोर्ड से लिखिये और जब हम सब लिखेंगे तो बदलेगा, क्यों नहीं बदलेगा।

Manjit Thakur ने कहा…

विवेक भाई को नमस्कार,
ये अपकी गलती नहीं है, लेकिन क्या हर चीज़ को हम ऐसे ही समाजवादी नज़रिए से देख सकते हैं.. आपकी तरह सोचने वाले बहुत हैं.. क्या आप मिशन बना कर पॼकार बनने आए थे.. अब नौकरी कर रहे हैं ना.. ऐसे ही नौकरी करते करते किसी दिन जिस दिन आप अपने चैनल में नीति- निर्धारक की भूमिका में पहुंचे तो फिर बदल दें.. बदलेंगे ना.. लेकिन मुमकिन है आपकी अदीबी बेचैनी पर बाज़ार हावी हो जाए. और तब आपको राखी सावंत के उगोज दिखाने के लिए टिक्कर हटाना भी उचित जान पडे.
सादर मंजीत

Batangad ने कहा…

विवेक
मैं जहां तक समझ सका हूं। किसी भी विचारधारा के साथ जुड़कर क्रांति की बात विश्वविद्यालय के दिनों तक तो अच्छी लगती है। लेकिन, जब अपने अस्तित्व के लिए रोजी-रोटी का संघर्ष करना पड़ता है तो, हकीकत सामने आ जाती है। समय की हकीकत के लिहाज से काम करें तो आसानी होती है। बाजार आज की हकीकत है जो, इलाहाबाद में उस समय नहीं था। अब इलाहाबाद में भी बाजार दिखता है। इस बार इलाहाबाद का बिग बाजार घूमकर आइएगा, नीचे ही मैकडोनल्ड भी मिल जाएगा। समय मिले तो इसे पढ़िए http://batangad.blogspot.com/2007/08/blog-post_30.html। और, समाज बदलने वाले अलग से नहीं आते।

बेनामी ने कहा…

vivek ji
haathi ke daant dikhane ke aur khane ke aur hotein hai. yahi baat yahan bhi dekhai deti hai.

travel30 ने कहा…

"आज से पांच साल पहले तक सोचा ही नहीं था....किस रंग की शर्ट पर कौन से रंग का पैंट अच्छा लगेगा" bahut sundar acha likha aapne aur phir Allahabad se jude hue hai to acha likhna to swabhawik hi hai :-)

Rohit Tripathi
http://rohittripathi.blogspot.com

बेनामी ने कहा…

blog padhkar lag raha hai ..patrkaar aur patrkaarita zinda hai abhi ...