मन के किसी वीरान तट पर-
लंगर डाले खड़ीं-
उम्मीद की कुछ जर्जर नौकाएं-
आवारा लहरों और-
दहशतगर्द तूफानों से बेपरवाह-
चंद्रकलाओं के बहकावे में,
तटबंधों को तोड़ती-
और-
रेत पर उगे सपनों को,
तार - तार कर देने वाली-
मगरुर और बदहवास हवाओं पर-
नजरें गड़ाए बैठी हैं-
मालूम नहीं, पर लगता है-
दीवार पर चढ़ने की कोशिश में-
बार बार गिरने वाली मकड़ी-
और वक्त बदलने की किस्सागोई,
किसी ने चुपके से-
इनके जेहन में डाल दी है।
सब कुछ शांत है-
स्तब्ध और निश्चेष्ट,
शायद-
तूफान की आहट है।
बुधवार, 12 सितंबर 2007
तूफान की आहट
Posted by
विवेक सत्य मित्रम्
at
12:57 am
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
17 टिप्पणियां:
बढ़िया भाव हैं, लिखते रहें.
i guess ur in star news..desk par.....neways bahut hi khoobsurat kavita hai badhai..aage bhi likhe ka intijaar rahega...
kavita achchi hai sir ..i guess u r in star news..
आज पहली बार आपके चिट्ठे पर आया एवं आपकी रचनाओं का अस्वादन किया. आप अच्छा लिखते हैं, लेकिन आपकी पोस्टिंग में बहुत समय का अंतराल है. सफल ब्लागिंग के लिये यह जरूरी है कि आप हफ्ते में कम से कम 3 पोस्टिंग करें. अधिकतर सफल चिट्ठाकार हफ्ते में 5 से अधिक पोस्ट करते हैं. किसी भी तरह की मदद चाहिये तो मुझ से संपर्क करे webmaster@sararhi.info -- शास्त्री जे सी फिलिप
मेरा स्वप्न: सन 2010 तक 50,000 हिन्दी चिट्ठाकार एवं,
2020 में 50 लाख, एवं 2025 मे एक करोड हिन्दी चिट्ठाकार!!
विवेक भाई,इसी गफलत में मैं भी पत्रकारिता में गया था,लेकिन आगे आपने बयान कर दिया है। कभी गाहे-बगाहे में भी गाहे-बगाहे आ जाओ..मोहल्ला से लिंक मिल जाएगा।
अमे यार हो कहां ... ढूंढने के लिए ब्लॉग में आया हूं ... तुम्हारा फोन लग नहीं रहा ... कॉल करो जरूरी है ... वक्त मिले तो मेरा ब्लॉग भी देख लेना ... shabdonkakarwan.blogspot.com
http://www.gustakh.blogspot.com/
ये इस गुस्ताख़ मंजीत का ब्लॉग है, कभी भ्रमण करें।
विवेक भैया,
आईआईएमसी में मैं आपका जूनियर रहा हूं। फिलवक्त डीडी न्यूज़ में हूं। मेरा ब्लाग गुस्ताख़ पर एक वार विजिट करें।
http://www.gustakh.blogspot.com/
मंजीत ठाकुर
भैया बढ़िया है। आप अपने गलियों में मुझे भी जोड़ लें। http://www.kissago.blogspot.com/
दिल को छू गयी...
सब कुछ शांत है-
स्तब्ध और निश्चेष्ट,
शायद-
तूफान की आहट है।
कहां है ये आहट? लोग कहते हैं कि नंदीग्राम में है। उसी की आंच तो आपने नहीं महसूस की है।
तटबंधों को तोड़ती-
गुरु, बुढ़उती तो नहीं आ गई। हालांकि नागार्जुन जैसे बुढ़ऊ तो जिंदगी भर लड़े थे और मरते वक्त तक लड़ते रहे। कहीं उनकी नौका जर्जर नहीं नज़र आई।
बहरहाल कुछ लोग लड़ने के लिए ही जन्म लेते हैं, सबके बूते का नहीं होता यह। भिड़े रहिए।
लगे रहो। कभी हमारे लिए भी लिखो।
विजय पाण्डेय
अमर उजाला
नोएडा
9999001051
पहली मुलाकात गोवा में
आपसे हुई बात गोवा में
आकर मिले हैं गोवा में
मिलते रहेंगे नई दिल्ली में
बसते हैं दिलों में
बसा लो हमको
या बस जाओ हमारे दिल में
खूब मजा है मिलने में
दिलों के खुलने में।
अच्छी कविता है विवेक जी।
devnagri mai likh nahi sakta ur enghish aati nahi hai. chaliye roman mai hindi likhta hu. mughe pata nahi tha ki aap itni achhi kavita likhte hai.
mughe ek baat hamesha pareshan karti hai ki mai jis vyavastha ka hissa hu uska virodhi kaise ho sakta hu.
आप कविता तो आच्छी लिखते हैं...........
कविताएँ तो अच्छी लिखते हैं आप.....
एक टिप्पणी भेजें