गुरुवार, 26 अप्रैल 2007

इस रात की सुबह नहीं...

बहुत दिनों बाद अपने चैनल पर एक बढ़िया स्लग देखा... 'इस रात की सुबह नहीं'। पुणे में होने वाली रेव पार्टी को न जाने किसने अपनी काबिलियत से नवाज दिया था। बहरहाल इस स्लग की बहुत से सहकर्मियों ने दिल खोलकर प्रशंसा की थी। शायद इसलिए भी अगली बार अगर उनमें से कोई ऐसा कारनामा कर डाले तो बाकी लोगों को वाहवाही लुटाने में संकोच न करना पड़े। वैसे भी जनता तो तारीफ करने से रही.....भला उसे क्या मालूम स्टोरी की स्टिंग किसी एक्जीक्यूटिव प्रोड्यूसर ने तय की होगी, वाल का टेक्स्ट किसी रन डाउन प्रोड्यूसर ने सुझाया होगा, स्लग - एस्टन किसी असोसिएट या असिस्टेंट प्रोड्यूसर ने बनाए होंगे और इसके लिए फाइल फुटेज लाइब्रेरी में माथापच्ची करके किसी ट्रेनी ने ढ़ूढे होंगे। जनता तो बस दो चेहरों को पहचानती है पहला एंकर जो ब्रेक पर जाने से पहले ये बताना नहीं भूलता है कि अगले पांच मिनट तक नहीं बने रहे तो जिंदगी में कितना कुछ मिस कर देंगे...और दूसरा रिपोर्टर जो अपनी हर स्टोरी के आखिर में ' अब देखना ये है.......' जैसे जुमले बोले बिना अपनी बात पूरी नहीं करता। खैर इसमें इनकी भी क्या गलती है कि ये पर्दे के आगे हैं.....अरे भाई कैमरे पर कुछ न कुछ तो बोलना ही पड़ता है.....।
दरअसल ये किस्सा वहां से शुरु नहीं हुआ जहां से मैंने आपको बताया। ये बात शुरु होती है करीब पांच महीने पहले एक दस साल के बच्चे की जुबान से निकले मासूम से सवाल से। चैनल ज्वाइन करने के बाद पहली बार घर गया था.....घर के सभी बड़े इस चिंता में दुबले हुए जा रहे थे कि भला १०-१२ घंटे काम करने वाली नौकरी भी कोई नौकरी है। जिंदगी के करीब ७४ बसंत देख चुकी दादी ने भी एक्सपर्ट कमेंट दे डाला...."एसे नीक त पीटीआई.....ए रहल ह....खाली छ घंटा क सरकारी नौकरी..."। खैर मातमपुर्सी का दौर चल ही रहा था तभी किसी ने एक बुनियादी सवाल जड़ दिया " तूं टीवी पर क बजे आवेल.....?"। चौथे या पांचवें दर्जे में पढ़ने वाले छोटे भाई का ये सवाल उस वक्त किसी यक्ष प्रश्न से कम नहीं लग रहा था। बड़े बड़ों को समझाना बहुत मुश्किल है कि चैनल में काम करने वाले सभी लोग टीवी पर नहीं दिखाई देते तो भला उस बच्चे को क्या बताता....किसी तरह चलताऊ जवाब देकर पिंड छुड़ाया पर आज भी फोन पर वो अपना सवाल अक्सर दुहरा देता है और मैं सोच में पड़ जाता हूं कि उसे क्या बताऊं।
तकरीबन ढ़ाई साल तक न्यूज एजेंसी में काम करते वक्त अक्सर एक बात सालती रहती थी कि भले ही हमारी खबर छह अखबारों में छप जाए पर भला कौन जान पाता है कि बेकार सी स्टोरी में जान फूंकने वाला शब्दों का बाजीगर कौन है....बेवजह आफिस के लोगों को चाय पिलानी पड़ती थी सो अलग। ये सोचकर भी संतोष कर लेते थे कि यहां तो रिपोर्टर का भी नाम नहीं जाता है फिर हम तो डेस्क के कारिंदे ठहरे....लेकिन कई बार जब कुछ रिपोर्टर प्रेस कांफ्रेंस से लौटकर बिना मांगे ही कलम और बैग वगैरह देने की पेशकश करने लगते तो कलेजा मुंह को आ जाता।
खैर...उस वक्त समस्या खुद तक सीमित थी....लोगबाग ओहदा पूछते तो अकड़कर बता देते थे 'सब एडिटर....'। पत्रकारिता की जानकारी नहीं होने के बावजूद लोग अंदाजा लगा लेते थे कि एडिटर से नीचे कोई पोस्ट होगी....और ज्यादा सवाल इसलिए नहीं पूछते थे कि उन्हें लगता था कि चलो अपने हाथ पैर से हो गया.....और क्या चाहिए। लेकिन चैनल में काम करते हुए आप महज ये बताकर छुट्टी नहीं पा सकते कि आप 'असोसिएट प्रोड्यूसर' है। इसके बाद तो जैसे सवालों की झड़ी लग जाती। लोग घूम फिरकर ऐसे ही सवाल पूछने की कोशिश करते हैं जिससे ये पता चल सके कि आप टीवी पर आते हैं या नहीं। वे तो बस ये जानना चाहते हैं कि आपका चेहरा इस काबिल है या नहीं जो टीवी पर आ सके। अगर आप साफ साफ बता दें कि आप टीवी पर नहीं आते हैं...दरअसल आप डेस्क पर काम करते हैं तो या तो वो इस बात को झूठ मान लेते हैं कि आप चैनल में काम करते हैं या फिर इस निगाह से देखते हैं मानो डेस्क पर काम करके आपने कोई बड़ा गुनाह कर दिया हो।
ये तो बात हुई उस छोटे से कस्बे की जहां स्टार न्यूज, आज तक, जी न्यूज या एनडीटीवी जैसे खबरिया चैनल आते भी नहीं हैं। लेकिन हकीकत ये है कि अखबार, एजेंसी या चैनल हर कहीं डेस्क पर काम करने वाला पत्रकार खुद को रिपोर्टर की तुलना में दीन हीन समझता है। आप किसी भी अखबार या न्यूज चैनल के दफ्तर में लोगों की बाडी लैंग्वेज देखकर ही एकदम सही अंदाजा लगा सकते हैं कि वो रिपोर्टर है या डेस्क पर्सन....। मसलन अखबार के दफ्तर में जो शख्स जोर जोर से बात कर रहा हो और हड़बड़ी में दिखाई दे वो रिपोर्टर है....मगर न्यूज चैनल में आसमान सिर पर उठाए रखने वाला और हैरान परेशान दिखाई देने वाला शख्स बिला शक प्रोड्यूसर (यानि चैनल का डेस्क पर्सन) है। इसके ठीक उलट अखबार में कछुए की मद्धिम चाल से अपनी धुन में लगा इंसान कोई सब एडिटर या कापी एडिटर होता है जबकि चैनल में ये आरामतलबी अक्सर रिपोर्टर्स में पाई जाती है। एक साथ काम करते हुए भी ये दो नस्लें हैं जो एक दूसरे को किसी और ग्रह से इंपोर्ट किया हुआ समझती हैं। दोनों ही एक दूसरे को इस नजर से देखते हैं मानो सामने वाला मुफ्त की तनखाह उठा रहा है। और यही बात दोनों के बीच वर्ग संघर्ष को जन्म देती है। लेकिन अखबार हो या चैनल आखिरकार असंतोष का कीड़ा अक्सर डेस्क पर काम करने वाले शख्स के मन में पाया जाता है....जैसे की मेरे (ये नितांत ईमानदार कन्फेशन है)।
और आखिरकार ले देकर यही बातें रह जाती हैं...."ठाकुर साहब! क्या स्लग लिखा था आपने, छा गए आप तो", "मिश्रा जी, स्टोरी का टाइटल लिखना तो कोई आपसे सीखे....कहां से लाते हैं ये शब्द", "अरे साहब, क्या खूब आपने विंडो बनाया था...फाड़ कर रख दिया..."। फिर मुझे बरबस ही याद आता है एक हिंदी लेखक (शायद रामवृक्ष बेनीपुरी) का वो लेख जिसमें वो कहते हैं कि बनना ही है तो नींव की ईंट बनो, कंगूरा नहीं....(क्या करें खुद को तसल्ली देने के लिए याद्दाश्त तेज रखनी पड़ती है)। बहरहाल क्या आपको भी यही लगता है कि रेव पार्टी के लिए इससे बेहतर स्लग हो ही नहीं सकता..."इस रात की सुबह नहीं"।

3 टिप्‍पणियां:

sushant jha ने कहा…

bhaiya..really aapne dil ki baat khol kar rakh di..perhaps this is the agony of every desk persons working in the media..and the use of word..or say play of word toh koyi aap se seekhe..
sushant

Pushpa Tripathi ने कहा…

vivek ji aapne jis imaandari ke saath apne peshe ki sacchai kisamne rakha hai,waqai kabile tarif hai.isi tarah likhte rahiye.

Atul Mishra ने कहा…

vivek ji aapne jo likha hai wo wakai kabile tarif hai na jane kitne sawal aj bhi hum logo se kiye jate hai janka answer dena mushkil ho jata hai kaafi din ho gaye aapne kuch likha nahi koi nayee baat aap saamne rakhiye lekin isi imandari se likhiyega